एक बहन रेखा ब्लॉगर की मांग पर हमने अपने बचपन के यह मंज़र लिखे थे. इस Article को उन्होंने 22 जून 2011 को पेश किया था। आज वही खूबसूरत मंज़र हम आपके साथ शेयर करते हैं. अल्लाह ने आपको जो नेमतें बख़्शी हैं, उनका चर्चा करते रहिये. इससे आपको हमेशा अच्छा फ़ील होगा और आपको और ज़्यादा नेमतें मिलेंगी.
दूसरी बात यह है कि अगर आप अपने बच्चों को राजकुमार और शहज़ादे की तरह ट्रीट कर पाये तो उनके Paradigm में बहुत सी इज़्ज़त और अज़्मत नक़्श हो जाएगी और उन्हें बड़े होकर दुनिया की नेमतें आसानी से मिलती चली जाएंगी.
पेश है हमारा article:
डॉ अनवर जमाल
छुट्टियाँ तो गाँव में ही ...
गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा तो बस गांव में आता हैगर्मी की छुट्टियां हमारे लिए स्कूल से आज़ादी का पैग़ाम लातीथीं। इनछुट्टियों में हम अपनी ननिहाल जाया करते थे जो कि ज़िलासहारनपुर केक़स्बा नानौता से तक़रीबन 5 किलोमीटर दूर स्थित है। इसगांव का नाम हैछछरौली। यह गांव क़ुदरती मंज़र की दौलत से मालामाल है।हरे भरे खेत औरबाग़ों के दरम्यान बहते हुए छोटे-बड़े राजबाहे इस इलाक़े कीरौनक़ हैं।
बच्चों की छलांगों से और उनके शोर-पुकार से सारा माहौलगूंजता रहता है।इन्हीं बच्चों के बीच में हम भी शामिल रहा करते थे। एक दूसरेके पीछेभागना और फिर पुल पर चढ़कर छपाक से पानी में कूद जानाऔर फिर पानी में भीतैर तैर कर पकड़म पकड़ाई खेलना।
हमारे नाना पुराने ज़माने के नंबरदार हैं। उनके वालिद ने जबज़मीनेंख़रीदी थीं तो उनका पेमेंट अशर्फ़ियों से किया था जो कितौलकर दी गई थींऔर गधों पर लादकर भेजी गई थीं।
सीलिंग और भाईयों में बंटवारे के बाद खेती की ज़मीन केअलावा 55 बीघे मेंउनके बाग़ आज भी हैं। जिनमें आम, बेर, जामुन औरनाशपाती से लेकर तरह तरहके पेड़ लगे हुए हैं। बुनियादी तौर पर ये आम के बाग़ हीकहलाते हैं। जबतेज़ हवा चलती थी तो हम ख़ुश होकर दूसरे बच्चों के साथबाग़ों की तरफ़भागा करते थे और छोटी छोटी आमियां चुन लाते थे अपनेखाने के लिए। हम तोदस-बीस कैरियां ही लाते थे बाक़ी सब समेटकर कूड़े पर फेंक दीजाती थीं।शहरों में इन्हें आज महंगे भाव बिकते देख कर मुझे ताज्जुब भीहोता है औरपुराने दिन भी याद आते हैं।
हमारी नानी का घर भी बहुत बड़ा था और उनकी पशुशाला भी।उनकी मुर्ग़ियांजहां-तहां अंडे देती फिरती थीं और हम उन्हें ढूंढते फिरते थे। जोअंडाजिस बच्चे को मिलता था। उसे अंडे पर उसी बच्चे का हक़ मानलिया जाता था।कभी भूसे के कमरे में तो कभी गेहूं स्टोर करने वाले कमरों में,हर जगह हमअंडों की टोह लिया करते थे।
हमारे नाना के पास पहले तो बहुत गाय भैंसे थीं। इतनी थीं किकभी उन्हेंखूंटे पर बांधने की नौबत ही नहीं आई। बस बाड़े में हांक करदरवाज़ा बंदकर दिया। नाना और नानी बीमार हुए तो बस 5 भैंसे और कुछबकरियां ही रह गईथीं। अपने लिए तो ये भी बहुत थीं। उनके मक्खन और घी काज़ायका हमारीछुट्टियों की लज़्ज़त को बहुत ज़्यादा बढ़ा देता था। आंगन केनीम तलेकढ़ते हुए लाल लाल दूध को उसकी मोटी मलाई के साथ पीना,वाह...। सोचकर आजभी मज़ा आ जाता है।
हमारी एक ख़ाला और दो मामू हैं। हमारे बचपन में हमारे दोनोंमामू की शादी
नहीं हुई थी लिहाज़ा उनका पूरा लाड प्यार हम पर ही बरसताथा। ख़ाला कीशादी हमारे चाचा से ही हुई है। वह भी वहीं आ जाती थीं। या तोनाना का घरपूरे साल सुनसान पड़ा रहता था या फिर एक दम ही धमाचैकड़ीमच जाती थी।नाना बेचारे हमारे पीछे पीछे यही देखते रहते थे कि कौन बच्चाछत पर है औरकौन बच्चा घास काटने वाली मशीन पर ?
उनकी सांसे अटकी रहती थीं, जब तक कि हमारी छुट्टियां पूरीनहीं हो जातीथीं। हमारी सलामती की वजह से ही हमें हमारे मामू घोड़ों कीसवारी भी नहींकरने दिया करते थे। फिर भी हम ज़िद करके और कभीमिन्नत करके उनकी सवारीगांठ ही लिया करते थे। इसी दरम्यान हम छोटे मामू साबिर खांसाहब के साथमछली के शिकार के लिए भी जाया करते थे। जाल वाल लेकरगांव के बहुत सेआदमियों के साथ मछली पकड़ने का रोमांच भी अलग ही है।कभी यही टीम अपनेशिकारी कुत्तों के साथ ख़रगोश के शिकार के लिए जाया करतीथी। ग़र्ज़ यहकि तफ़रीह बेतहाशा थी।
इसी बीच आम खाने लायक़ हो जाया करते थे। बाग़ से आमतुड़वाकर टोकरों औरबोरियों में भी हमारे सामने भरा जाता था और इस तुड़ाई में हमभी हिस्सालेते था। फिर उसे मज़दूर भैंसा बुग्गी या ट्रैक्टर पर लाद देतेऔर एकख़ास तरीक़े से उन्हें तीन दिन तक रज़ाईयों के नीचे ढक दियाजाता।
तीसरे दिन से हमारी नानी हमें छांट छांट कर आम देतीं और हम बच्चेअपने अपने आमबाल्टियों में भिगो कर खाते। आम इन छुट्टियों का ख़ासआकर्षण हुआ करतेथे। आज भी हम यही कोशिश करते हैं कि बाज़ार से आम लाएंतो टोकरे में हीलाएं। लेकिन इस कोशिश के बावजूद हमें बचपन वाला वहमज़ा नहीं आता।हम आज भी सोचते हैं कि जिन लोगों की ननिहाल किसी गांवमें नहीं है,उन्हें गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा भला क्या आता होगा ?
गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा तो बस गांव में आता हैगर्मी की छुट्टियां हमारे लिए स्कूल से आज़ादी का पैग़ाम लातीथीं। इनछुट्टियों में हम अपनी ननिहाल जाया करते थे जो कि ज़िलासहारनपुर केक़स्बा नानौता से तक़रीबन 5 किलोमीटर दूर स्थित है। इसगांव का नाम हैछछरौली। यह गांव क़ुदरती मंज़र की दौलत से मालामाल है।हरे भरे खेत औरबाग़ों के दरम्यान बहते हुए छोटे-बड़े राजबाहे इस इलाक़े कीरौनक़ हैं।
बच्चों की छलांगों से और उनके शोर-पुकार से सारा माहौलगूंजता रहता है।इन्हीं बच्चों के बीच में हम भी शामिल रहा करते थे। एक दूसरेके पीछेभागना और फिर पुल पर चढ़कर छपाक से पानी में कूद जानाऔर फिर पानी में भीतैर तैर कर पकड़म पकड़ाई खेलना।
हमारे नाना पुराने ज़माने के नंबरदार हैं। उनके वालिद ने जबज़मीनेंख़रीदी थीं तो उनका पेमेंट अशर्फ़ियों से किया था जो कितौलकर दी गई थींऔर गधों पर लादकर भेजी गई थीं।
सीलिंग और भाईयों में बंटवारे के बाद खेती की ज़मीन केअलावा 55 बीघे मेंउनके बाग़ आज भी हैं। जिनमें आम, बेर, जामुन औरनाशपाती से लेकर तरह तरहके पेड़ लगे हुए हैं। बुनियादी तौर पर ये आम के बाग़ हीकहलाते हैं। जबतेज़ हवा चलती थी तो हम ख़ुश होकर दूसरे बच्चों के साथबाग़ों की तरफ़भागा करते थे और छोटी छोटी आमियां चुन लाते थे अपनेखाने के लिए। हम तोदस-बीस कैरियां ही लाते थे बाक़ी सब समेटकर कूड़े पर फेंक दीजाती थीं।शहरों में इन्हें आज महंगे भाव बिकते देख कर मुझे ताज्जुब भीहोता है औरपुराने दिन भी याद आते हैं।
हमारी नानी का घर भी बहुत बड़ा था और उनकी पशुशाला भी।उनकी मुर्ग़ियांजहां-तहां अंडे देती फिरती थीं और हम उन्हें ढूंढते फिरते थे। जोअंडाजिस बच्चे को मिलता था। उसे अंडे पर उसी बच्चे का हक़ मानलिया जाता था।कभी भूसे के कमरे में तो कभी गेहूं स्टोर करने वाले कमरों में,हर जगह हमअंडों की टोह लिया करते थे।
हमारे नाना के पास पहले तो बहुत गाय भैंसे थीं। इतनी थीं किकभी उन्हेंखूंटे पर बांधने की नौबत ही नहीं आई। बस बाड़े में हांक करदरवाज़ा बंदकर दिया। नाना और नानी बीमार हुए तो बस 5 भैंसे और कुछबकरियां ही रह गईथीं। अपने लिए तो ये भी बहुत थीं। उनके मक्खन और घी काज़ायका हमारीछुट्टियों की लज़्ज़त को बहुत ज़्यादा बढ़ा देता था। आंगन केनीम तलेकढ़ते हुए लाल लाल दूध को उसकी मोटी मलाई के साथ पीना,वाह...। सोचकर आजभी मज़ा आ जाता है।
हमारी एक ख़ाला और दो मामू हैं। हमारे बचपन में हमारे दोनोंमामू की शादी
नहीं हुई थी लिहाज़ा उनका पूरा लाड प्यार हम पर ही बरसताथा। ख़ाला कीशादी हमारे चाचा से ही हुई है। वह भी वहीं आ जाती थीं। या तोनाना का घरपूरे साल सुनसान पड़ा रहता था या फिर एक दम ही धमाचैकड़ीमच जाती थी।नाना बेचारे हमारे पीछे पीछे यही देखते रहते थे कि कौन बच्चाछत पर है औरकौन बच्चा घास काटने वाली मशीन पर ?
उनकी सांसे अटकी रहती थीं, जब तक कि हमारी छुट्टियां पूरीनहीं हो जातीथीं। हमारी सलामती की वजह से ही हमें हमारे मामू घोड़ों कीसवारी भी नहींकरने दिया करते थे। फिर भी हम ज़िद करके और कभीमिन्नत करके उनकी सवारीगांठ ही लिया करते थे। इसी दरम्यान हम छोटे मामू साबिर खांसाहब के साथमछली के शिकार के लिए भी जाया करते थे। जाल वाल लेकरगांव के बहुत सेआदमियों के साथ मछली पकड़ने का रोमांच भी अलग ही है।कभी यही टीम अपनेशिकारी कुत्तों के साथ ख़रगोश के शिकार के लिए जाया करतीथी। ग़र्ज़ यहकि तफ़रीह बेतहाशा थी।
इसी बीच आम खाने लायक़ हो जाया करते थे। बाग़ से आमतुड़वाकर टोकरों औरबोरियों में भी हमारे सामने भरा जाता था और इस तुड़ाई में हमभी हिस्सालेते था। फिर उसे मज़दूर भैंसा बुग्गी या ट्रैक्टर पर लाद देतेऔर एकख़ास तरीक़े से उन्हें तीन दिन तक रज़ाईयों के नीचे ढक दियाजाता।
तीसरे दिन से हमारी नानी हमें छांट छांट कर आम देतीं और हम बच्चेअपने अपने आमबाल्टियों में भिगो कर खाते। आम इन छुट्टियों का ख़ासआकर्षण हुआ करतेथे। आज भी हम यही कोशिश करते हैं कि बाज़ार से आम लाएंतो टोकरे में हीलाएं। लेकिन इस कोशिश के बावजूद हमें बचपन वाला वहमज़ा नहीं आता।हम आज भी सोचते हैं कि जिन लोगों की ननिहाल किसी गांवमें नहीं है,उन्हें गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा भला क्या आता होगा ?